हमारे नीतिशास्त्र में कई एसे प्रसंग है , जिनमें सद्कर्म को ही सफलता का मूल मंत्र बताया गया है । अगर कोई इससे विमुख होता है, तो यह मान लेना चाहिए कि वह भगवद्भजन से भी विमुख हो गया है , फिर वह चाहे कितनी भी त्याग तपस्या करे ।
श्री सांगदेव संस्कृत महाविद्धालय , नरवर ( बुलंदशहर ) के कुलाधिपति तपोमूर्ति जीवनदत्त ब्रह्मचारी त्याग तपस्या की साक्षात मूर्ति थे । बड़े बड़े सन्त महात्मा तथा संस्कृत विद्वान पंडित जीवनदत्त के सत्संग के लिए उत्सुक रहा करते थे । वह प्रतिदिन गंगा स्नान के बाद गायत्री मन्त्र का जाप करते, ध्यायन लगाते और वृक्ष के नीचे छात्रो को संस्कृत, व्याकरण और धर्म शास्त्रो का अध्ययन कराते । स्वयं भोजन भनाते और उसे भगवान के प्रसाद के रूप में ग्रहण करते थे । एक दिन उनकी रसोई में नमक नहीं था । दूसरे दिन भोजन बनाते समय दाल चावल के पास नमक रखा देखा, तो सेवक से पुछा , आज यहाँ नमक है, क्या शहर से मंगवाया था ? सेवक बोला, महाराज, शहर तो कल आदमी जाएंगे, मैं छात्रावास से थोड़ा सा नमक आपकी रसोई के लिए ले आया था । यह सुनते ही कुलाधिपति जी बोले, यह तुमने अच्छा नहीं किया । मेरी दाल में छात्रों की रसोई का नमक नहीं डालना चाहिए था । भविष्य में एसा कभी मत करना ।
ऐसे थे आदर्शवादी कुलाधिपति पंडित जीवनदत्त जी ।
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