उन दिनों गांधी जी साबरमती आश्रम में थे।एक दिन जब सभी लोग आश्रम में सो गए , तभी वहां एक चोर घुस आया। हालाँकि आश्रम में चुराने के लिए ऐसा कोई भी सामान नहीं था, किन्तु चोर नासमझ था। चोर के घुसने से हुयी आवाज़ से आश्रम के कुछ लोगो की नींद खुल गयी थी। उन्होंने चोर को पकड़ लिया था। सभी ने मिलकर उसे कोठरी में बंद कर दिया था।गांधीजी भी उस समय सो रहे थे, और गहरी नींद में थे, इसलिए उन्हें इस घटना के विषय में रात को कुछ पता नहीं चला।
सुबह जब वो उठे तो आश्रम के प्रबंधक ने उन्हें घटना की जानकारी दी।चोर को गांधीजी के सामने लाया गया।चोर उनके सामने डरा हुआ सर झुकाए खड़ा था।दरअसल उसे पुलिस को सोंपे जाने का डर सता रहा था,किन्तु गांधीजी ने उसकी आशा के विपरीत उससे पूछा- 'तुमने नाश्ता किया ?' वह हैरानी से उन्हें देखने लगा और कुछ भी बोल नहीं पाया।तब गांधी ने प्रबंधक से पूछा,तो वह बोल-'बापू! यह तो चोर है। नाश्ते का सवाल ही कहा उठता है?' यह सुनते ही गाँधी जी ने दुखी होकर कहा - 'क्यों, क्या यह इंसान नहीं है ? इसे ले जाओ और नाश्ता कराओ।'
गांधीजी के हृदय से निकली इस क्षमा को देखकर चोर की आँखों से प्रायश्चित के आंसू बहने लगे। वह सदा के लिए सुधर गया। और भविष्य में कभी चोरी न करने की कसम खायी।
सार यह है की क्षमाशील व्यक्ति प्रणम्य और अनुकरणीय होता है, क्योकि क्षमा उसे बडप्पन देती है और क्षमा पाने वाले को सुधार का मार्ग दिखाती है।
सुविचार
स्वार्थ में अच्छाईयाँ ऐसे खो जाती है जैसे समुन्द्र में नदियाँ।
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