बुधवार, 8 अगस्त 2012

एक सिक्के के खातिर – गरीबी

कुछ नन्हे हाथों को आज हाथ छुडाते देखा है

उन कोमल हाथों पे छालों का एक गुलदस्ता देखा है

तपती कंकरीली धरती पे दिन भर रेंगते देखा है

खाने के चंद निवालों पे मैंने उनको पिटते देखा है

भूख मिटाने की खातिर यहाँ रूह नाचती देखी है

हर गाडी में झांकती उनकी आस टपकती देखी है

हंस कर जीने की आशा को आंसू में बहती देखी है

एक सिक्के के खातिर मैंने ज़िन्दगी भागती देखी है



- रवि कुम्भकार

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