रविवार, 29 सितंबर 2013

मजबूर माँ

एक माँ चटाई पे लेटी आराम से सो रही थी...

कोई स्वप्न सरिता उसका मन भिगो रही थी...

तभी उसका बच्चा यूँ ही गुनगुनाते हुए आया...

माँ के पैरों को छूकर हल्के हल्केसे हिलाया...

माँ उनीदी सी चटाई से बस थोड़ा उठी ही थी...

तभी उस नन्हे ने हलवा खाने की ज़िद कर दी...

माँ ने उसे पुचकारा और फिर गोद मेले लिया...

फिर पास ही ईंटों से बने चूल्हे का रुख़ किया...

फिर उनने चूल्हे पे एक छोटी सी कढ़ाई रख दी...

फिर आग जला कर कुछ देर उसे तकती रही...

फिर बोली बेटा जब तक उबल रहा है येपानी...

क्या सुनोगे तब तक कोई परियों वाली कहानी...

मुन्ने की आँखें अचानक खुशी से थीखिल गयी...

जैसे उसको कोई मुँह माँगी मुराद हो मिल गयी...

माँ उबलते हुए पानी मे कल्छी ही चलातीरही...

परियों का कोई किस्सा मुन्ने को सुनाती रही...

फिर वो बच्चा उन परियों मे ही जैसे खो गया....

सामने बैठे बैठे ही लेटा और फिर वही सो गया...

फिर माँ ने उसे गोद मे ले लिया और मुस्काई...

फिर पता नहीं जाने क्यूँ उनकी आँखभर आई...

जैसा दिख रहा था वहाँ पर सब वैसा नही था...

घर मे इक रोटी की खातिर भी पैसा नही था...

राशन के डिब्बों मे तो बस सन्नाटापसरा था...

कुछ बनाने के लिए घर मे कहाँ कुछ धरा था...

न जाने कब से घर मे चूल्हा ही नहींजला था...

चूल्हा भी तो बेचारा माँ के आँसुओं सेगला था...

फिर उस बेचारे को वो हलवा कहाँ से खिलाती...

उस जिगर के टुकड़े को रोता भी कैसे देख पाती...

वो मजबूरी उस नन्हे मन को माँ कैसे समझाती...

या फिर फालतू मे ही मुन्ने पर क्यूँ झुंझलाती...

इसलिए हलवे की बात वो कहानी मे टालती रही...

जब तक वो सोया नही, बस पानी उबालतीरही

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